इतिहास में जब-जब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों पर अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार का जिक्र होगा उसमे जलियांवाला बाग़ कांड में हुए नरसंहार का नाम लेते ही एक मौन पैदा होगा। हज़ारों लाशों के ऊपर पसरा एक मौन !
जहाँ अपने मुर्दा बाप की झाती पर बिलखने की बजाय किसी बेजान बच्चे की लाश मौन पड़ी होगी। जहाँ किसी बेसुध माँ के आँचल से कोई बेटी मौन लिपटी हुई होगी। सोचकर दिल दहल जाता है कि कैसा रहा होगा वह दृश्य?
13 अप्रैल, 1919 की शाम को एक सदी गुजर चुकी है लेकिन अंग्रेजी हुकूमत की निर्ममता और क्रूरता का सबूत पंजाब का जलियांवाला बाग आज भी रोज बयान करता है. बैसाखी की शाम को रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी जिसमें हजारों लोग एकत्रित हुए. शहर में बैसाखी के त्यौहार की वजह से मेला देखने और घूमने निकले सैंकड़ो लोग भी इस सभा का हिस्सा बन गए, जो कभी फिर घर वापस नहीं लौटे।
ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहां पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा। सैनिकों ने बाग को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। 10 मिनट में कुल 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं। जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से पट गया।
अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। अनाधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था। माना जाता है कि यह घटना ही भारत में ब्रिटिश शासन के अंत की शुरुआत बनी।
जलियांवाला बाग़ में स्थित एक पट्टिका पर लिखा है “भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने के लिए शांतमयी आंदोलन में शहीद होने वाले हजारो हिंदुस्तानी देशभक्तों के शरीर से यह भूमि सींची हुई है. यहाँ ब्रिटिश सरकार के जनरल डायर ने गोली चलकर निहत्थे लोगों का क़त्ल किया था. जलियांवाला बाग़ संसार भर में भारतीय नेशनल कांग्रेस के शांतिपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन का अटल दृष्टांत है. इस स्थान पर रोलट एक्ट के विरुद्ध रोष प्रकट करते निहत्थे शांत निर्दोष हिन्दू, सिख तथा मुसलमानों को ब्रिटिश सरकार ने 13 अप्रैल सन 1919 वैशाखी वाले दिन गोली चलाकर शहीद किया था. जलियांवाला बाग़ ब्रिटिश सरकार के घोर अत्याचार की ऐतिहासिक घटना का प्रत्यक्ष प्रमाण है. आल इण्डिया कांफ्रेंस के 1919 के प्रस्ताव अनुसार इस बाग़ में शहीद होने वाले देशभक्तों की याद को कायम रखने के लिए ट्रस्ट कमेटी बनाकर हिन्दुस्तान तथा अन्य देशों के वासियों से चंदा एकत्रित करके इस बाग़ की धरती को इसके मालिकों से 5,65,000 रुपयों में खरीदा गया. उस समय तथा इसके पश्चात जब यह जगह खरीदी गयी तब यह खाली जमीन थी तथा यहाँ कोई बाग़ नहीं था.”
लोग डर कर हर दिशा में भागने लगे, लेकिन उन्हें बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं मिला. सारे लोग संकरी गलियों के प्रवेश द्वार पर जमा होकर बाहर निकलने की कोशिश करने लगे. डायर के सैनिकों ने इन्हीं को अपना निशाना बनाया. लाशें गिरने लगीं. कई लोगों ने दीवार चढ़ कर भागने की कोशिश की और सैनिकों की गोलियों का निशाना बने. भीड़ में मौजूद कुछ पूर्व सैनिकों ने चिल्ला कर लोगों से लेट जाने के लिए कहा. लेकिन ऐसा करने वालों को भी पहले से लेट कर पोज़ीशन लिए गोरखाओं ने नहीं बख़्शा.
बाद में सार्जेंट एंडरसन ने जो जनरल डायर के बिल्कुल बगल में खड़े थे, हंटर कमेटी को बताया, “जब गोलीबारी शुरू हुई तो पहले तो लगा कि पूरी की पूरी भीड़ ज़मीन पर धराशाई हो गई है. फिर हमने कुछ लोगों को ऊँची दीवारों पर चढ़ने की कोशिश करते देखा. थोड़ी देर में मैंने कैप्टेन ब्रिग्स के चेहरे की तरफ़ देखा. मुझे ऐसा लगा कि उन्हें काफ़ी दर्द महसूस हो रहा था.”