रानी गाइदिनल्यु को कुछ लोग “पूर्वोत्तर की लक्ष्मीबाई” तो कोई “नागाओ की रानी” के नाम से जानता है | जिन्होंने 13 वर्ष की छोटी सी आयु में अपने क्रन्तिकारी जीवन का आरम्भ कर दिया था| रानी गाइदिनल्यु ने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी अपितु नागा जनजातियों के स्वाभिमान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया|
रानी गाइदिनल्यु ने नागा नेता जादोनाग के मार्गदर्शन में अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता की जंग छेड़ी| लेकिन अंग्रेजों द्वारा जादोनाग के पकडे जाने तथा 19 अगस्त 1931 को उन्हें फांसी दिये जाने के बाद स्वाधीनता की यह आग बुझती नजर आने लगी | उस समय मात्र 14 वर्ष की आयु में रानी ने इस आन्दोलन का नेतृत्व सँभालने का फैंसला किया | उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखते हुए समस्त नागा सेना ने उनका समर्थन किया| उन्होंने लगभग 4000 हज़ार सैनिकों की सेना लेकर अंग्रेजों का कई बार सामना किया| अंग्रेजों की बड़ी सेनाओं से निपटने के लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई |
इतनी छोटी उम्र में रानी का प्रभावशाली नेतृत्व देख अंग्रेज अफसर भी उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते थे | उन्होंने निरंतर पूर्वोत्तर की छोटी – छोटी जनजातियों को एकत्रित करने का प्रयास किया तथा वह पूर्वोत्तर भारत को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए अथक प्रयास करती रही | उन्होंने गाँधी जी द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन के बारे में जानकर ब्रिटिश सरकार को किसी भी तरह का कर न देने का फैसला किया| रानी गाइदिनल्यु राष्ट्र की स्वाधीनता के लक्ष्य को लेकर लगातार अंग्रेजों से लडती रही परन्तु कभी हार नहीं मानी |रानी गाइदिनल्यु ने पूर्वोत्तर की विभिन्न जनजातियों को एकत्रित किया तथा उन्हें शस्त्र विद्या का ज्ञान दिया | रानी ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए 4 हजार योद्धाओं की एक सशस्त्र सेना का निर्माण किया | उन्होंने अंग्रेजों की छोटी – छोटी टुकड़ियों पर हमला कर अंग्रेजों को खदेड़ने के अपने प्रयास आरम्भ रखे और अंततः वह अंग्रेजी सेना को भयभीत करने में सफल भी रही |
रानी को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने वहां के कई गाँवो में आग लगा दी, स्थानीय लोगो को बंदी बनाकर प्रताड्नाये दी गयी | लेकिन इस सब के बावजूद भी रानी गाइदिनल्यु ने आत्मसमर्पण नहीं किया तथा स्वाधीनता की इस लड़ाई को जारी रखा | वह निरंतर स्थानीय लोगो की रक्षा करते हुए अंग्रेजों से लोहा लेती रही | उन्होंने असम राइफल्स पर हमला कर अंग्रेजी शासन की जड़े हिला दी |रानी ने अपनी सेना के रहने और प्रशिक्षण की व्यस्था करने के लिए एक किले का निर्माण कराने की योजना तैयार की | विशाल स्तर पर किला निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया | लेकिन 17 अप्रैल 1932 को अचानक अंग्रेजों ने हमला कर दिया, जिसमे सैंकड़ो सैनिक मारे गए तथा रानी गाइदिनल्यु को बंदी बना लिया गया | अंग्रेजी शासन ने उन पर मुकदमा चलाया तथा उन्हें कारावास में डाल दिया गया |
सन 1937 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू असम दौरे पर गए तो उन्होंने रानी गाइदिनल्यु की वीरता तथा स्वाधीनता के लिए लड़ी गयी उनकी लड़ाई के बारे में सुना | उन्होंने अंग्रेजी सरकार से उनकी रिहाई के लिए प्रार्थना की लेकिन अंग्रेजी शासन ने रानी को रिहा करना खतरे से भरा जान रिहा नहीं किया |सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय रानी गाइदिनल्यु 14 साल का कारावास काट कर जेल से बाहर निकली | स्वतन्त्रता के इस महान यज्ञ में उनकी आहुति के लिए प्रधानमंत्री ने उन्हें ताम्रपत्र तथा भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया |
आज जहाँ एक ओर हम रानी लक्ष्मीबाई, रानी चेनम्मा, झलकारी बाई तथा रानी अवंतीबाई जैसी स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाओं को निरंतर स्मरण कर सम्मान प्रदान करते हैं वहीं दूसरी ओर उन्ही के समकक्ष रानी गाइदिनल्यु जैसे न जाने कितने नाम समय के गर्त में दबे रह गये है | ऐसे नाम जिन्होंने अपने रक्त की अंतिम बूँद तक देश की स्वाधीनता और अखंडता के लिए संघर्ष किया |
हमे अपने अतीत में झांक कर इतिहास के पन्नों को पलटना होगा तभी हम स्वाधीनता की इस मौलिकता तथा उसके लिए किये गये त्याग, समर्पण और बलिदान के बारे में जान पाएंगे | हमे जानना होगा कि कितनी कुर्बानियों के बाद हमने स्वतंत्रता प्राप्त की | तभी हम वास्तविक स्वाधीनता और स्वाधीनता के उस अगले चरण के बारे में जान पाएंगे जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की आहुति दे अखंडता के इस यज्ञ में पूर्णाहुति समर्पित की थी |
लिख गए हैं लहू से, इतिहास आजादी का जो
गुम हैं यादों के पल, स्वर्ग में सोये हैं वो
है श्रद्धांजली मेरी ये अर्पित, नमन है मेरा यें उनको
समग्र स्वाधीनता का श्रेय, होता है समर्पित जिनको