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राष्ट्रकवि, जनकवि या आंदलनों के कवि ? कौन थे ‘दिनकर’

DINKAR
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जब-जब हिन्दी भाषा और उसके नायकों को याद किया जायेगा तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जायेगा। चाहे अध्यापक जीवन हो या राजनैतिक कार्यकाल उन्होंने हर मंच पर सीना तानकर हिंदी का नेतृत्व किया। 

विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाले देश में जहाँ आज तक भी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सका, जहाँ संसद में हिंदी को हमेशा एक राजनैतिक मुद्दे के तौर पर देखा गया वैसे में दिनकर जी ने जब देश की सबसे बड़ी संसद में हिंदी का अपमान होते हुए देखा तो उन्होंने राज्यसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की ओर इशारा करते हुए कठोर स्वर में हिंदी का नेतृत्व किया था। बात 20 जून 1962 की है। उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले। उन्होंने कहा-

“देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?”

यह सुनकर पूरा सदन सन्न हो गया। चारो तरफ़ मौन छा गया लेकिन सन्नाटे को चीरते हुए हिंदी के उस दीप्त ‘दिनकर’ ने कहा ‘मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचाती है।’

विद्रोह और आक्रोश से भरी उनकी रचनाएँ रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंद्वगीत की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं तो अंग्रेजी हुकूमत को समझते देर न लगी कि वे एक गलत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया। राज्यसभा का सदस्य होने बावजूद भी उन्होंने राजनैतिक मोह को कभी अपनी कलम पर हावी नहीं होने दिया।  समय – समय पर दिनकर को चेतावनियां मिलती रही लेकिन दिनकर वो कवि नहीं थे जो सत्ता के डराने से डर जाते। ” नामवर सिंह ने कहा है “दिनकर जी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।” इसके बावज़ूद भी उनकी लेखनी निरंतर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार करती रही।  

उनकी कविता “सिंहासन खाली करो की जनता आती है” को जयप्रकाश नारायण ने बिहार से गाकर दिल्ली के सिंहासन की नीवं हिला दी थी। यें कविता उनके आंदोलन का गीत बनी। बाद न जाने कितने धरने और जनांदोलनों को दिनकर की इस कविता से आवाज़ मिली। आज भी राष्ट्रकवि दिनकर के ये शब्द सत्ता के सताये हुए नागरिकों की आवाज बनें हुए हैं। 

दिनकर की कविताये रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, उर्वशी उनकी लेखनी से निकले अलग-अलग इंद्रधनुषी रंगों को व्यक्त करती हैं। जितना आक्रोशित विद्रोह उतना ही सुरमयी श्रृंगार यही दिनकर की कलम की पहचान है। 

उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों, असमानताओं और सामाजिक शोषण को अपनी कविताओं का आधार बनाया। उन्होंने इतिहास और महापुराणों के किरदारों और घटनाओं के माध्यम से वर्तमान की कुरीतियों को जग जाहिर किया। द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वाँ स्थान दिया गया।

दिनकर जी को उनकी रचना संस्कृति के चार अध्याय के लिये सन 1959 में साहित्य अकादमी दिया गया। राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया। राजस्थान विद्यापीठ द्वारा उन्हें 1968 में साहित्य-चूड़ामणि पुरस्कार से सम्मानित किया। दिनकर जी को वर्ष 1972 में उनकी काव्य रचना उर्वशी के लिये ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।

 

– विशाल कुमार त्यागी

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